भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया सैन्य तनाव के बीच कांग्रेस (Congress) अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने एक बार फिर सेना के शौर्य को राजनीतिक बहस का हिस्सा बना दिया है। उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर और CDS जनरल अनिल चौहान के बयानों को लेकर सरकार पर गंभीर आरोप लगाए और संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की। लेकिन क्या देश की सामरिक नीति और सैन्य रणनीति को इस तरह सार्वजनिक बहस का हिस्सा बनाना ठीक है? आइए इस पूरे मुद्दे को गहराई से समझते हैं।
खरगे के सवाल और सेना पर अविश्वास

Source: Indian National Congress – Shri Mallikarjun Kharge
कांग्रेस अध्यक्ष ने CDS जनरल अनिल चौहान के शांगरी-ला डायलॉग में दिए गए बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और सरकार पर निशाना साधा। उन्होंने मांग की कि ऑपरेशन सिंदूर की जांच हो और एक समीक्षा समिति बने, जैसा कारगिल युद्ध के बाद हुआ था।
जनरल चौहान ने क्या कहा था?
उन्होंने केवल यह कहा कि “हर युद्ध में कुछ नुकसान होता है, और भारत ने अपनी रणनीतिक गलतियों से सीखा है।
यह बयान आत्म-विश्लेषण और रणनीतिक सुधार की भावना से जुड़ा था, लेकिन कांग्रेस ने इसे विफलता का “स्वीकारोक्ति” बताने की कोशिश की।
बिना प्रमाण के दावे और उसके दुष्परिणाम
तेलंगाना के मंत्री और पूर्व वायुसेना पायलट उत्तम कुमार रेड्डी ने दावा किया कि ऑपरेशन सिंदूर में राफेल विमान गिरा। यह बयान बिना किसी आधिकारिक पुष्टि के आया। क्या किसी पूर्व सैन्य अधिकारी को इस तरह की गैर-ज़िम्मेदार टिप्पणी शोभा देती है? क्या इससे दुश्मन देश को बल और अपने देश को संदेह नहीं मिलता?
सेना सरकार की नहीं, देश की होती है
बार-बार यह दोहराया जाना ज़रूरी है कि भारतीय सेना एक राष्ट्रीय संस्था है। यह किसी की जागीर नहीं। जब विपक्ष इस पर अविश्वास जताता है, तो वह केवल सत्ता नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र के आत्मबल को आहत करता है। रणनीतिक योजना में बदलाव और फिर से हमला करना हमारी ताकत दर्शाता है, कमजोरी नहीं।
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति बनाम सियासी हल्ला
डोनाल्ड ट्रम्प जैसे विदेशी नेता यदि युद्धविराम की मध्यस्थता का दावा करते हैं, तो उसे “शिमला समझौते का अपमान” कह कर सरकार को घेरना क्या सही है? अंतरराष्ट्रीय मंच पर ऐसे बयान अक्सर राजनीतिक बयानबाजी का हिस्सा होते हैं, न कि रणनीतिक सच्चाई।
राजनीति बनाम राष्ट्रहित
संसदीय रिपोर्ट में स्क्वाड्रन की कमी या आपूर्ति में देरी उठाना अलग बात है, लेकिन सैन्य ऑपरेशन की सफलता/विफलता पर राजनीति करना यह एक जिम्मेदार विपक्ष की पहचान नहीं हो सकती। कांग्रेस को यह याद रखना चाहिए कि हार-जीत राजनीति का हिस्सा है, लेकिन सेना का मनोबल दांव पर लगाना राष्ट्र के साथ न्याय नहीं।
निष्कर्ष: सवाल ज़रूरी हैं, लेकिन संतुलन भी उतना ही आवश्यक
जब पूरा देश अपनी सेना की वीरता और रणनीति पर गर्व कर रहा है, तब राजनीतिक दलों को बयानबाज़ी के बजाय जिम्मेदारी निभानी चाहिए।
क्या आपको लगता है कि राजनीति और सैन्य नीति के बीच एक स्पष्ट रेखा खींची जानी चाहिए? अपनी राय नीचे कॉमेंट करें और देशहित से जुड़ी सूचनाओं के लिए हमें फॉलो करें।